फेस रीडिंग
सरोज दुबे
सरोज दुबे
चौधरी साहब वाले क्वार्टर में पच्चीस-छब्बीस वर्ष का एक ओवरसियर रहने आया था। उसे हमारी कालोनी में आए तो सिर्फ सात-आठ माह ही हुए थे, लेकिन इतने कम समय में ही वह सबसे काफी घुलमिल गया था। वह अविवाहित था और अपने क्वार्टर में अकेला ही रहता था, फिर भी सुबह-शाम उसके क्वार्टर में बच्चों की धूम मची रहती। शुरू -शुरू में बच्चे उसे ’सक्सेना अंकल’ कहते थे, पर जल्दी ही बच्चों ने इससे अधिक आत्मीयता का सम्बोधन ढूँढ़ निकाला। छोटे-बड़े सभी बच्चे उसे ’अशोक अंकल’ कहने लगे।
सुबह होते ही बच्चे उसके कमरे में जाया करते। फिर अशोक अंकल के साथ सबका व्यायाम आरंभ होता। कभी योगासन, कभी उठा-बैठक, तो कभी बगीचे तक की सैर होती। उसके आफिस जाने तक बच्चों की धमाचैकड़ी जारी रहती। शाम को बच्चे स्कूल से लौटते और अशोक अँकल अपने आफिस से। बच्चों का नाश्ता करना और अशोक का कपड़े बदलना तक मुश्किल हो जाता। बच्चे खेलने को बेताब! जैसे-तैसे मुँह-हाथ धोकर और कपड़े बदलकर अशोक अंकल बच्चों के साथ सामने वाले मैदान में आ डटते। नित नए खेल होते। बच्चो के साथ-साथ अशोक के ठहाकों से मैदान गूँजता रहता। जब रात की कालिमा गहराने लगती तो अशोक जबरन खेल बंद करवा कर कहता, -“चलो बच्चो, घर जाओ। और अब पढ़ो-लिखो!”
बच्चे अपने अपने घर जाते। पढ़ते-लिखते, भोजन करते और फिर आकर घेर लेते। एक कहता, “अशोक अंकल, कहानी सुनाओ
न! वो परीवाली कहानी।” दूसरा कहता- “नहीं अंकल, राजकुमारी वाली! तीसरा कैसे चुप रहता? वह कहता, “नहीं...नहीं अंकल, उड़नेवाले घोडे़ पर सवार राजकुमार की कहानी!” फिर जब रात को माता-पिता उन्हें पुकार कर घर ले जाते तब बच्चे घर जाते।
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एक दिन मेहरा साहब की बड़ी लड़की सुनीता की बर्थ-डे पार्टी थी। हमेशा की तरह सुंदर लड़कियाँ और बड़े-बड़े आफीसर उनके घर आये थे। उस दिन पार्टी के आकर्षण का केंद्र ये सब नहीं थे। उस दिन पूरी पार्टी पर छाए थे, बच्चों के अशोक अंकल। बच्चों के आग्रह पर अशोक ने एक गीत सुनाया। बस, फिर क्या था! लोगों को उसका एक नया परिचय मिला। लोग फरमाइश पर फरमाइश करने लगे। तभी किसी ने कहा- ”अरे सक्सेना जी, मैंने तो सुना है, तुम बाँसुरी भी बजाते हो।” एक लड़का दौड़कर बाँसुरी उठा लाया। सच में ही अशोक की बाँसुरी में जादू था। छोटे-बड़े सभी उसकी बाँसुरी सुनकर मुग्ध हो गए।
यह कार्यक्रम चल रहा था कि तभी मेहरा साहब का छोटा भाई राकेश अपने किसी फेसरीडर मित्र को साथ लेकर आया। उसने कुछ लोगों से मित्र का परिचय करवाया। कोई दूसरा दिन होता तो लोग उस फेसरीडर को घंटों न छोड़ते, पर उस दिन लोग दूसरे मूड में थे। अशोक का गायन और बाँसुरी वादन काफी देर तक चलता रहा। लोग अशोक के षील-स्वभाव और गुणों की तारीफ करते नहीं थकते थे। श्रीवास्तव जी हमारी कालोनी के बड़े नीरस आदमी समझे जाते थे, पर उस दिन वे भी पिघल गए- “कितना सभ्य और सुषील लड़का है। भगवान एक लड़की देता तो....!”
रात को दस बजे पार्टी खत्म हुई। मेहरा साहब के निकट के कुछ मित्र और उनका परिवार ही रह गया था। अचानक राकेश ने बहुत बड़े रहस्य को बताने के अंदाज से सबको बुलाकर कहा- ”पता है, मेरे फेसरीडर मित्र ने अशोक के विषय में क्या कहा?” हम सब सतर्क हुए। मैं मन ही मन कल्पना कर रही थी कि फेसरीडर ने शायद उसके विषय में किन्हीं नई संभावनाओं की ओर संकेत किया होगा। लेकिन आशा के विपरीत राकेश ने बताया- ”मेरे मित्र ने कहा है कि इस व्यक्ति का चेहरा बताता है कि यह बड़ा चलता-पुर्जा आदमी है। ऐसे आदमी का चरित्र अच्छा नहीं होता, इससे सावधान रहना।” उसकी बात सुनकर मैं तो सन्न ही रह गई।
”हो सकता है भाई! मिश्रा जी की छोटी बहू से बातें करते हुए तो, मैंने इसे कई बार देखा है।” -षर्मा जी ने कहा।
”देखिए, मैंने तो किसी से कहा नहीं, लेकिन उस दिन मैं बंटी को लाने उसके घर गया था, तो वह सुनीता के गले में हाथ डाले कहानी सुना रहा था। लड़कियों में उसकी बड़ी दिलचस्पी है। और फिर ऐसे लोग क्या लड़कियांे की उम्र देखते हैं?”-सेन साहब बोले
”हाँ, जी! नहीं तो कौन दूसरों के बच्चों के लिए इतना समय खराब करता है! यहाँ तो लोगों को अपने बच्चों के लिए फुर्सत नहीं मिलती।” मिसेस मेहरा बोलीं।
मेरा मन न जाने कैसा हो गया। बड़ी कहे जाने योग्य तो हमारी कालोनी में तीन ही लड़कियाँ थीं, पर संयोग से वे सभी मैट्रिक की परीक्षा की तैयारी में जुटी थीं, अतः उन्हें पढ़ने से ही फुर्सत नहीं थी। दस-ग्यारह वर्ष की बच्चियों को लेकर बिना प्रमाण के किसी पर ऐसा आरोप लगाना बड़ा ही घृणित लगा। फेसरीडर की बात न हुई ब्रह्मवाणी ही हो गई! लोगों ने न कुछ सोचा न समझा। सब बड़े थे। एकाएक विरोध करते भी न बना। फिर भी मैंने धीरे से कहा-”राकेश भैया, तुम्हारा मित्र सच में फेसरीडिंग जानता है क्या? यह विद्या है तो जरूर, पर इतनी सरल-सुलभ नहीं है।”
”मेरी समझ में यह नहीं आता कि तुम सब लोग कैसे बेवकूफ हो! राकेश का मित्र नहीं आता तो पता नहीं यह नाटक कब तक चलता रहता। कल से बच्चों का वहाँ जाना बंद करो और तुम लोगों को भी उससे बातें करने की जरूरत नहीं है।”-मेहरा साहब ने अपनी पत्नी तथा हम सब स्त्रियों की ओर देखकर कुछ रोष से कहा।
फिर स्त्रियों में भी भय मिश्रित चर्चा होने लगी-”आजकल का जमाना बड़ा खराब है। पता नहीं कौन, कैसा आदमी आता है। अच्छा हुआ जो आज...।”
दूसरे दिन यही चर्चा हवा की तरह घर-घर पहुँच गई। माता-पिता ने बच्चों को सख्त ताकीद दे दी-“अशोक अंकल के घर कोई नहीं जाएगा। वह बुरा आदमी है।” लड़कियों पर विशेष सख्ती हुई, और लड़के भी बचे नहीं। आखिर लड़कों पर भी तो बुरे संस्कार पड़ते हैं।
बड़े बच्चे बेमन से पढ़ाई का बहाना बनाकर घर में बैठ गए, पर छोटे बच्चों को रोकना कठिन था। एक दिन एक सज्जन अपने बच्चे को उसके घर से मारते हुए घसीट ले गए। बेचारा अशोक परेशान! यह एकाएक क्या हो गया? बच्चों का उसके घर आना क्यों बंद हो गया? कालोनी की स्त्रियाँ देखते ही मुँह क्यों फेर लेती हैं? एक बार मुझसे आकर पूछा भी-”भाभी, मुझसे कोई अपराध हो गया?” उसके इस प्रश्न का भला मैं क्या उत्तर देती?
अशोक के क्वार्टर में होने वाला शोर और मैदान से आने वाली ठहाकों की आवाज कहीं खो गई। सारा माहौल ही बदल गया था। अशोक के क्वार्टर पर प्रायः ताला दिखाई देता। शायद इस भय से कि कहीं कोई बच्चा उसके स्नेह की खातिर फिर दंड का भागी न बने। रात में भी कुछ देर उसके कमरों की खिड़कियों से प्रकाश दिखाई देता और फिर वही अंधकार! उसके विषय में सोचकर कई बार मन बड़ा व्याकुल हो जाता। अब इतने समय तक कहाँ रहता होगा बेचारा? क्या करता होगा? इस शहर में उसका कोई है भी तो नहीं!
एक दिन सामने वाले मनोज ने बताया था-”चाची, कल हम कॉलेज के दो तीन लड़के पार्क में घूमने गए थे, तो ये अशोक सक्सेना एक बेंच पर बड़े गुमसुम से उदास बैठे थे।” बात सुनकर हृदय भर आया। बिना किसी अपराध के लोगों ने कितनी बड़ी सजा दे डाली उसे!
कभी-कभी रात में बाँसुरी का दर्द भरा स्वर अँधेरे को चीरता हुआ कलेजे को भेद जाता। लगता, उड़नेवाले घोड़े पर सवार राजकुमार और कोई नहीं, अशोक सक्सेना ही है जिसके धरती पर उतरने के सब रास्ते लोगों ने बंद कर दिए हैं।
“देखा, आप लोगों ने-अब लोगों का आराम से सोना भी हराम किए दे रहा है। दिनभर यहाँ-वहाँ घूमता है और रात को संगीत बघारता है।” -लोग आपस में कहने लगे।
इस बीच एक-दो बार अशोक को देखा था। निस्तेज चेहरा और अपराध-बोध की गहरी छाया लिए, झुके हुए नयन देखकर मैंने भी आँखें चुरा लीं थीं।
कई बार लोग उसे निर्ममता से छेड़ देते- ”क्यों सक्सेना साहब, कहाँ रहते हो आजकल? दिखते ही नहीं।”
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सुनीता की बर्थ-डे पार्टी को लगभग दो माह बीत गए थे। एक दिन रायपुर से बाबू जी के एक मित्र हमारे यहाँ आए। हम-सबको यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वे अशोक के लिए अपनी बेटी निर्मला का विवाह सम्बंध लेकर आए थे।
बातों-बातों में बाबू जी ने कहा- ”आपके पास तो काफी पैसा है। कोई अच्छा आॅफिसर ग्रेड का लड़का क्यों नहीं देखते? अशोक सक्सेना तो मामूली-सा ओवरसियर है।”
मित्र हँसकर बोले--”भैया, डिग्री और पैसे से बढ़कर तो मनुष्य के गुणों की कीमत है। आज मैं बड़ा भारी आॅफीसर लड़का देखकर लड़की दे दूँ, लेकिन कल मेरी बच्ची के साथ क्या सलूक होगा पता नहीं। अशोक पाँच वर्ष तक रायपुर के होस्टल में रहकर पढ़ा है। हम सब लोगों का खूब देखा-परखा लड़का है। वैसे वह खुद अभी शादी के लिए तैयार नहीं है, इसी कारण तो मुझे खुद आना पड़ा।”
और, फिर अशोक का विवाह तय हो गया। सारी कालोनी में यही चर्चा... ”अरे भई, कौन था वो फेसरीडर ? अच्छे भले आदमी को बदनाम कर गया!”
अशोक ने अपने गाँव से हम सभी को विवाह की पत्रिकाएँ भेजी थीं। उसके लौटने पर सबने मिलकर एक अच्छा सा उपहार खरीदकर दिया। सभी हँस-हँसकर मिले। लोगों के मन की मलिनता तो धुल चुकी थी, पर एक बार मुरझाया फूल भी कहीं खिलता है?
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विवाह के करीब एक माह बाद बच्चों ने एक दिन आकर बताया--”चाची जी,... चाची जी, अशोक अंकल ने यहाँ से अपना तबादला करवा लिया। भिलाई जा रहे हैं।” यह समाचार सुनकर सच में ही मुझे दुख हुआ। उसके भिलाई जाने के एक दिन पूर्व उसे भोजन के लिए बुलाया था। ‘ये’ आफिस के किसी काम से मुम्बई गए थे और बाबूजी अस्वस्थ थे। अतः उसके आतिथ्य का भार मुझ पर ही था।
पहले-सा ही गंभीर और उदास मुख लिए वह आया था। ”अशोक भैया, तबादला क्यों करवा लिया? कुछ दिन निर्मला के साथ भी न रहने दिया?”- मैंने भोजन परोसते-परोसते कहा।
”यहाँ अच्छा नहीं लगता भाभी! लोगों की निगाहों से गिरकर जीना ही तो कितनी बड़ी सजा है। मेरे बाद माँ का क्या होगा-यही सोचकर रह गया वर्ना मैं तो...” वह बोलते-बोलते रुक गया।
मैंने भी पलकें झुकाकर अपनी भीगी आँखें छुपा लीं।
दूसरे दिन शाम को वह टैक्सी में अपना सामान रख रहा था। हम दो चार महिलाएँ और कालोनी के ढेर सारे बच्चे उसे घेरे खड़े थे। वह पैर छूने झुका तो मैने कहा- “अशोक भैया, एक बार निर्मला को लेकर जरूर आना।”
उसने रुँधे हुए कंठ से किसी तरह ”हूँ” कहा। फिर बिस्कुट और चाकलेट के कई डिब्बे मुझे थमाकर बोला-“लो भाभी, बच्चों को बाँट देना। क्या पता फिर आना हो, न हो! टैक्सी तैयार खड़ी थी। किसी बच्चे को गोद में लेकर, किसी के सिर पर स्नेह भरा स्पर्श करके, तो किसी के मुख पर चुंबन दे कर, भरे हुए हृदय से वह टैक्सी में बैठा। संकेत पाकर ड्राइवर ने टैक्सी चला दी। वह टैक्सी में से हाथ हिलाए जा रहा था और हम लोग पत्थर की मूर्तियों की तरह चुपचाप खडे़ थे।
सरोज दुबे
(प्रकाशित-आनन्द,डाइजेस्ट दिसम्बर 1981)