शेष शर्त
सरोज दुबे
सरोज दुबे
मैं जब मामा के घर पहुँची तो उनकी बहू विभा बाहर जाने की तैयारी में थी।
‘‘हाय दीदी, आज जरा जल्दी में हूँ, प्रेस जाने का समय हो गया है शाम को मिलते हैं,‘‘ वह उल्लास से बोली।
‘‘प्रभा को तुम्हारे दर्षन हो गए, यही क्या कम है, अब शाम को तुम कब लौटोगी, इस का कोई ठिकाना है क्या ?’’-तभी मामी की आवाज सुनाई दी।
सहसा विभा के चेहरे पर नाराजगी झलक उठी।
‘‘नहीं नहीं, तुम निकलो, विभा। थोड़ी देर बाद मुझे भी बाहर जाना है, ‘‘मैंने कहा।
मामाजी कहीं गए हुए थे। अमित के स्नान करके आते ही मामी ने खाना मेज पर लगा दिया। पारिवारिक चर्चा करते हुए हमने भोजन आरंभ किया। मामी थकी हारी सी लग रहीं थीं। मैंने पूछा तो बोली, ’’इन बाप-बेटों को नौकरी वाली बहू चाहिए थी। अब बहू जब नौकरी पर जाएगी तो घर का काम कौन करेगा? नौकरानी अभी तक आई नहीं।’’
मैंने देखा, अमित इस चर्चा से असुविधा महसूस कर रहा था। बात का रुख पलटने के लिए मैंने कहा, ‘‘हाँ, नौकरानियों का सब जगह यही हाल है। पर वे भी क्या करें, उन्हें भी तो हमारी तरह जिंदगी के और काम करने रहते हैं’’।
अमित जल्दी-जल्दी कपड़े बदल कर बाहर निकल गया। मैंने मामी के साथ मेज साफ करवाई। बचा खाना फ्रिज में रखा और रसोई की सफाई में लग गई। मामी बार-बार मना करती रहीं, ‘‘नहीं प्रभा बिटिया, तुम रहने दो, मैं धीरे-धीरे सब कर लूँगी। एक दिन के लिए तो आई हो, आराम करो,’’
मुझे दोपहर में ही कई काम निबटाने थे, इसलिए बिना विश्राम किए ही बाहर निकलना पड़ा।
जब मैं लौटी तो शाम ढल चुकी थी। मामी नौकरानी के साथ रसोई में थी। मामाजी उदास से सामने दीवान पर बैठे थे। मैंने अभिवादन किया तो क्षण भर को प्रसन्न हुए। परिवार की कुषलक्षेम पूछी फिर उचाट मन से चुपचाप बालकनी में घूमने लगे। बात कुछ मेरी समझ में न आई। अमित और विभा भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। मामाजी का गंभीर रुख देख कर उनसे कुछ पूछने की हिम्मत न हुई।
तभी मामी आ गई ‘‘कब आई, बिटिया?’’
‘‘बस, अभी मामाजी, आप लोग कुछ परेशान से दिखाई दे रहे हैं’’
‘‘विभा अभी तक आफिस से नहीं लौटी है, जाने कैसी नौकरी है उसकी’’
कुछ देर बाद अमित और विभा साथ-साथ ही आए। दोनों के मुख पर अजीब सा तनाव था। विभा बिना किसी से बोले तेजी से अपने कमरे में चली गई। अमित हम लोगों के पास बैठ कर टीवी देखने लगा। वातावरण सहसा असहज लगने लगा। किसी अनर्थ की आशंका से मन व्याकुल हो उठा।
विभा कपड़े बदल कर कमरे में आई तो मामी ने उलाहने के स्वर में कहा- ‘‘खाना तो हमने बना लिया है, अब मेज पर लगा लोगी या हम जा कर लगाएँ? ’’
मामाजी मानो राह ही देख रहे थे, तमक कर बोले, ‘‘तुम बैठो चुपचाप बुढ़ापे में मरी जाती हो। अभी पसीना सूखा नहीं कि फिर चलीं रसोई में... तुमने क्या ठेका ले रखा है...’’
बात यहीं तक रहती तो शायद विभा चुप रह जाती, पर मामाजी दूसरे ही क्षण फिर गरजे, ‘‘लोग बाहर मौज करते हैं। पता है न, कि घर में चैबीस घंटे की नौकरानी है।
इस आरोप से विभा हत्प्रभ रह गई। कम से कम उसे यह आशा नहीं रही होगी कि मामाजी मेरी उपस्थिति में भी ऐसी बातें कह जाएँगे। उसने वितृश्णा से कहा, ‘‘आप लोगों को दूसरों के सामने तमाशा करने की आदत हो गई है।’’
‘‘हम लोग तमाशा करते है ? तमाशा करने वाले आदमी हैं, हम लोग? पहले खुद को देखो... अच्छे खानदान की लड़कियाँ घर परिवार से बेफिक्र, इतनी रात तक बाहर नहीं घूमती।’’
’’आप को मेरा खानदान शादी के पहले देखना था, बाबूजी’’
मामाजी भड़क उठे, ’’मुझसे जबान मत चलाना, वरना ठीक न होगा...,’’ बात बढ़ती देख अमित अपनी पत्नी विभा को धकियाते हुए अंदर ले गया।
मैं लज्जा से गड़ी जा रही थी। पछता रही थी कि आज रुक क्योें गई। अच्छा होता जो शाम की बस से घर निकल जाती। यों बादल बहुत दिनों से गहराते घुमड़ते रहे होंगे, वे तो उपयुक्त अवसर देख कर फट पड़े थे।
थोड़ी देर बाद मामी ने नौकरानी की सहायता से खाना मेज पर लगाया। मामी के हाथ का बना स्वादिश्ट भोजन भी बेस्वाद लग रहा था। सब चुपचाप अपने में ही खोए भोजन कर रहे थे। बस, मामी ही भोजन परोसते हुए और लेने का आग्रह करती रहीं।
भोजन समाप्त होते ही मामाजी और अमित उठ कर बाहर वाले कमरे में चले गए। मैंने धीरे से मामी से पूछा, ’’विभा...?’’
’’वह कमरे से आएँगी थोड़े ही...।’’
‘‘पर...?’’
‘‘बाहर खाती-पीती रहती है,’’ उन्होंने फुसफसा कर कहा।
मैं सोच रही थी कि विभा बहू की जगह बेटी होती। तो आज का दृष्य कितना अलग होता।
‘‘देखा, सब लोगों का खाना हो गया, पर वह आई नहीं,’’ मामी ने कहा।
‘‘मैं उसे बुला लाऊँ ?
‘‘जाओ...देखो।’’
मैं उसके कमरे में गई। उसकी आँखों में अब भी आँसू थे। मुझे यह जान कर आश्चर्य हुआ कि अमित उसे मेरे कारण आफिस का काम बीच में ही छुड़वा कर ले आया था और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। जब भी कोई मेहमान आता, उसे आफिस से बुलवा लिया जाता।
‘‘तुमने अमित को समझाने की कोशिश नहीं की ?’’
‘‘कई बार कह चुकी हूँ’’
‘‘वह क्या कहता है ?’’
‘‘आफिस का काम छोड़ कर आने में तकलीफ होती है तो नौकरी छोड़ दो’’
क्षण भर को मैं स्तब्ध ही रह गई कि जब नए जमाने का पढ़ा लिखा युवक उसके काम की अहमियत नहीं समझता तो पुराने विचारों के मामा-मामी का क्या दोष!
’’चिंता न करो, सब ठीक हो जाएगा। शुरू में सभी को ससुराल में कुछ न कुछ कष्ट उठाना ही पड़ता है ’’ मैंने उसे धैर्य बँधाते हुए कहा।
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मैं अपने घर आकर उस घटना को लगभग भूल ही गई थी। संयुक्त परिवार की यह एक साधारण सी घटना ही तो थी। किंतु कुछ माह बीतते न बीतते एक दिन मामाजी का पत्र आया उन्होंने लिखा था कि अमित का तबादला अमरावती हो गया है, परंतु विभा ने उसके साथ जाने से इंकार कर दिया है।
पत्र पढ़ कर मुझे पिछली बातें याद हो आई...
अमित मामाजी का एकलौता बेटा था। घर में धनदौलत की कोई कमी न थी, उसने इंजीनियरिंग की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की थी। देखने में भी वह ऊँचा पूरा आकर्षक युवक था। इन तमाम विशेषताओं के कारण लड़की वालों की भीड़ उसके पीछे हाथ धो कर पड़ी थी।
किंतु मामाजी भी बड़े जीवट आदमी थे। उन्होंने तय कर लिया था कि लड़की वाले चाहे जितना जोर लगा लें, पर अमित का विवाह तो वह अपनी षर्तों पर ही करेंगे।
जिन दिनों अमित के रिष्ते की बात चल रही थी, मैंने भी मामाजी को एक मित्र परिवार की लड़की के विषय में लिखा था। लड़की मध्यमवर्गीय परिवार की थी। अर्थषास्त्र में एम.ए. कर रही थी। देखने में भली थी। मेरे विचार में एक अच्छी लड़की में जो गुण होने चाहिए, वे सब उसमें थे।
मामाजी ने पत्रोत्तर जल्दी ही दिया था। उन्होंने लिखा था...’बेटी, तुम अमित के लिए जो रिश्ता देखोगी, वह अच्छा ही देखोगी, इसका मुझे पूरा विश्वास है। पर अमित को विज्ञान स्नातक लड़की चाहिए। दहेज मुझे नहीं चाहिए लेकिन तुम तो जानती हो रिष्तेदारी बराबरी में ही भली...जहाँ तक हो सके, लड़की नौकरी वाली देखो। अमित भी नौकरी वाली लड़की ही चाहता है।’
मामाजी का पत्र पढ़कर मैं हैरान रह गई। मामाजी उस युग के आदमी थे, जिसमें कुलीनता ही लड़की की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती थी। लड़की थोड़ी बहुत पढ़ी लिखी और सुंदर हो तो सोने में सुहागा। जमाने के हिसाब से विचारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक है। लेकिन लगता था कि वह बिना यह साचे विचारे कि उनके अपने परिवार के लिए कैसी लड़की उपयुक्त रहेगी, जमाने के साथ नहीं बल्कि उससे आगे चल रहे थे।
संयोग से दूसरे ही सप्ताह मुझे नागपुर जाने का अवसर मिला। मामाजी से मिलने गई तो देखा, वह बैठक में किसी महिला से बातें कर रहे थे। वह उस महिला को समझा रहे थे कि अमित के लिए उन्हें कैसी लड़की चाहिए।
उन्होंने दीवार पर 5 फुट से 5 फुट 5 इंच तक के निशान बना रखे थे और उस महिला को समझा रहे थे, ’अपना अमित 5 फुट 10 इंच ऊँचा है। उसके लिए लड़की कम से कम 5 फुट 3 इंच ऊँची चाहिए। यह देखो... यह हुआ 5 फुट...यह 5 फुट 1 इंच... 2 इंच... 3 इंच... 5 फुट 4 इंच हो तो भी चलेगी। लड़की गोरी चाहिए। लड़की के माता-पिता, भाई-बहनांे के बारे में सारी बातें एक कागज पर लिख कर ले आना। लड़की हमें साइंस गे्रजुएट चाहिए... अगर गणित वाली हो या पोस्ट गे्रजुएट हो तो और भी अच्छा है।
सामने बैठी महिला को भलीभाँति समझा कर वह मेरी ओर मुखातिब हुए, ‘बेटे, आजकल आर्ट वालों को कोई नहीं पूछता, उन्हें नौकरी मुश्किल से मिलती है। खैर, बी. ए. में कौन सी डिवीजन थी लड़की की? फस्र्ट डिवीजन का कैरियर हो तो सोचा जा सकता है। एम.ए के प्रथम वर्ष में कितने प्रतिशत अंक है?
मैं समझ गई कि अमित के लिए रिश्ता तय करवाना मेरे बूते के बाहर की बात है। मामाजी के विचारों के साथ अमित की कितनी सहमति थी, इसे तो वही जाने, पर इस झंझट में पड़ने से मैंने तोबा कर ली।
लगभग 2-3 वर्ष की खोजबीन, जाँच परख के बाद अमित के लिए विभा का चयन किया गया था। वह गोरी, ऊँची, छरहरे बदन की सुंदर देहदृष्टि की धनी थी। उसकी षिक्षा कानवेंट स्कूल में हुई थी। वह फर्राटे से अँग्रेजी बोल सकती थी। उसने राजनीति षास्त्र में एम.ए.किया था।
बंबई से पत्रकारिता का कोर्स करने के बाद वह नागपुर के एक प्रसिद्ध दैनिक पत्र में कार्यरत थी। इस विवाह संबंध से मामाजी, मामी और अमित सभी बहुत प्रसन्न थे। खुद मामाजी विभा की प्रशंसा करते नहीं थकते थे।
लेकिन विवाह के तीन चार माह बाद ही स्थिति बदलने लगी। विभा के नौकरी पर जाते ही यथार्थ जीवन की समस्याएँ उनके सामने थीं। मामाजी हिसाबी आदमी थे, वह यह सोच कर क्षुब्ध थे कि आखिर बहू के आने से लाभ क्या हुआ? अमित के तबादले ने इस मामले को गंभीर मोड़ पर पहुँचा दिया था।
इसके बाद नागपुर जाने के अवसरों को मैंने जानबूझ कर टाल दिया था। किंतु लगभग साल भर बाद मुझे एक बीमार रिश्तेदार को देखने नागपुर जाना ही पड़ा। वहीं मामाजी से भंेट हो गई। अमित और विभा के विषय में पूछा तो बोले, ‘‘घर चलो, वहीं सब बातें होंगी’’।
हम लोग घर पहुँचे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था। मामी खिचड़ी बना कर अभी-अभी लेटी थीं, उनकी तबीयत ठीक नहीं लग रही थी। मुझे देखा तो उठ बैठी और शिकायत करने लगी कि मैंने उन लोगों को भुला दिया है।
‘‘अमित अमरावती में है, उसे वहाँ बढ़िया फ्लैट मिला है पर खाने पीने की कोई व्यवस्था नहीं है। कभी होटल में खा लेता है, कभी नौकर से बनवा लेता है। तुम्हारी मामी बीच-बीच में जाती रहती है। इसका भी बुढ़ापा है... यह यहाँ मुझे देखे या उसे देखे। मेरी तबीयत भी अब पहले जैसी नहीं रही। यहाँ का कारोबार देखना भी जरूरी है, नहीं तो सब अमरावती में ही रहते। विभा ने नौकरी छोड़ कर अमित के साथ जाने से इनकार कर दिया। साल भर से मायके में ही है।’’ मामाजी ने बताया।
अमित के विषय में बातें करते हुए दोनों की आँखों में आँसू भर आए। मैंने ध्यान से देखा तो दीवार पर 5 फुट की ऊँचाई पर लगा निशान अब भी नजर आ रहा था।
मन तो हुआ, उनसे कहूँ, ’आपकी समस्या इतनी विकट नहीं है, जिसका समाधान न हो सके। ऐसे बहुत से परिवार हैं, जहाँ नौकरी या बच्चों की पढ़ाई के कारण पति पत्नी को अलग-अलग शहरों में रहना पड़ता है। विभा और अमित भी छुट्टियाँ ले कर कभी नागपुर और कभी अमरावती में साथ रह सकते हैं, पर चाह कर भी कह न सकी।
दूसरे दिन सुबह हम सब नाश्ता कर रहे थे कि किसी ने घंटी बजाई। मामाजी ने द्वार खोला तो सामने एक बुजुर्ग सज्जन खड़े थे। मामी ने धीरे से परिचय दिया- ‘‘दीनानाथ जी हैं... विभा के पिता।’’
पता चला कि विभा और अमित के मतभेदों के बावजूद वह बीच-बीच में मामाजी से मिलने आते रहते हैं।
मामी अंदर जाकर उनके लिए भी नाश्ता ले आई दीनानाथ सकुचाते से बोले, ‘‘बहनजी, आप क्यों तकलीफ कर रही हैं...मैं घर से खा-पी कर ही निकला हूँ।’’
फिर क्षण भर रुक कर बोले, ‘‘क्या करें भई, हम तो हजार बार विभा को समझा चुके कि अमित इतने ऊँचे पद पर है, पूर्वजों का जो कुछ है, वह सब भी तुम्हारे ही लिए है...नौकरी छोड़ कर ठाट से रहो। पर वह कहती है कि मैं सिर्फ पैसा कमाने के लिए नौकरी नहीं कर रही हूँ। इस काम का संबंध मेरे दिल और दिमाग से है। मैंने अपना करियर बनाने के लिए रात-रात भर पढ़ाई की है। नौकरी के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा से गुजरी हूँ। अब इस नौकरी को छोड़ देने में क्या सार्थकता है?’ ऐसे में आप ही बताइए...’’ उन्होंने बात अधूरी ही छोड़ दी।
मामाजी ने अखबार पढ़ने का बहाना करके उनकी बात को अनसुना कर दिया परंतु मामी चुप न रह सकी, ‘‘भाई साहब, लड़की तो लड़की ही है, लेकिन हम बड़े लोगों को तो उसे यही षिक्षा देनी चाहिए कि वह अपनी घरगृहस्थी देखते हुए नौकरी कर सके तो जरूर करे। नौकरी के लिए घर-परिवार छोड़ दे, पति को छोड़ दे और मायके में जा बैठे, यह तो कोई ठीक बात नहीं है।’’
यद्यपि मामी ने अपनी बात बड़ी सरलता और सहजता से कही थी, परंतु उनका सीधा आक्षेप दीनानाथजी पर था। कुछ क्षण चुप रहकर वह बोले- ‘‘बहनजी, एक समय था, जब लड़कियों को सुसंस्कृत बनाने के लिए ही षिक्षा दी जाती थी। लड़की या बहू से नौकरी करवाना लोग अपमान की बात समझते थे। पर अब तो सब नौकरी वाली, कैरियर वाली लड़की को ही बहू बनाना चाहते हैं।
इस कारण लड़कियों के पालन-पोशण का ढंग ही बदल गया है। अब वे किसी के हाथ की कठपुतली नहीं हैं कि जब हम चाहें, तब नौकरी करने लगें ओर जब हम चाहें, तब नौकरी छोड़ दें।’’
कुछ देर सन्नाटा सा रहा उनकी बात का उत्तर किसी के पास नहीं था। इधर-उधर की कुछ बातें करके दीनानाथ उठ खड़े हुए। मामाजी उन्हें द्वार तक विदा करके लौटे तो बोले- ‘‘देखा बेटी, बुड्ढा कितना चालाक है। गलती मुझसे ही हो गई शादी के पहले ही मुझे यह भी “शेष-शर्त” रख देनी चाहिए थी कि हमारी जब मरजी होगी, तब तक लड़की से नौकरी करवाएँगे... नहीं होगी तो नहीं करवाएँगे।’’
उनकी इस “शेष-शर्त” को सुन कर मैं अवाक् उनका मुख देखती रह गई।
सरोज दुबे
( प्रकाशित- सरिता, प्रथम 1989)