चिलचिलाती धूप भी, लगती सुहानी गाँव की.....
चिलचिलाती धूप भी, लगती सुहानी गाँव की
इस शहर में क्यों बसे जब चाहतें हैं छाँव की
छटपटाते,दिख रहे हैं दर्द से इंसान सब
वेदना किसकी सुनाएँ हम भटकते पाँव की
कंकरीटों के मकानों में गुजारी जिंदगी
किस तरह यादें बचाएँ हम सुहानी ठाँव की।
गूँजती अमराइयों में तान कोयल की कभी,
अब नहीं मुंडेर से आतीं पुकारें काँव की।
कामनाएँ बलवती हैं आजकल आराम की
कौन समझेगा विवशता जिंदगी के दाँव की।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’