यूँ ही हर साल गुजरते जा रहे हैं.....
यूँ ही हर साल गुजरते जा रहे हैं।
बेवफा-सपने बिछुड़ते जा रहे हैं।।
सुलाती थी कभी माँ गोद में अपने,
जिंदगानी में उलझते जा रहे हैं।
पुरानी यादों ने जबसे मुँह मोड़ा,
उन्हीं चित्रों को पलटते जा रहे हैं ।
गई बेटी तो सूना-सा घर हो गया ,
बिदाई कर अब सुबकते जा रहे हैं।
नजरों से बचाकर क्या पिला डाला,
लड़-खड़ाते-पग बहकते जा रहे हैं।
सत्ता के धृतराष्ट्र कितने बढ़ गये,
जलाके दिल को,दहकते जा रहे हैं।
समाया धर्म जिंदगी में कुछ इस तरह,
अब समर्थन में अकड़ते जा रहे हैं।
दोस्तों की नजरें कुछ इस तरह बदलीं ,
हटा पायदान खुद बढ़ते जा रहे हैं।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’