आस्तीनों में छिपे.....
आस्तीनों में छिपे, कुछ नाग निकले हैं।
कोयलों का वेश धर, अब काग निकले हैं।।
दोस्ती का हाथ, बढा़इएगा संभलकर।
डसने को मुख से उनके, झाग निकले हैं।।
झाँकना मना है दूजों के मकानों में।
काटने पाले घरों से, डाग निकले हैं।।
उंँगली को उठाना सही नहीं बार-बार।
अपने अंदर झाँकिए, तो दाग निकले हैं।।
अंँधेरों से मत उलझिए चलिए संभल कर।
रोशनी में चलने को, चिराग निकले हैं।।
चमन का ही माली जब हो गया हो भक्षक ।
उदासियों से उजड़े, हर बाग निकले हैं।।
सरहदें सुरक्षित हैं, जाँबाज सैनिकों से।
गोलियों की गर्जना से आग निकले हैं।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’