अपने संस्कारों को हमने.....
अपने संस्कारों को हमने,
अपने हाथों तापा।
पथ से भटके संतानों के,
छिप-छिप रोते पापा।
तन पर पड़ीं झुर्रियां देखो,
सिर में छाई सफेदी ।
दर्पण ने सूरत दिखलाई,
दिल ने खोया आपा।
हाड़-तोड़ कर भरी तिजोरी,
अंतिम समय न सोचा।।
जीवन जीना सरल है भैया,
सबसे कठिन बुढ़ापा।
गलत राह से चढ़े शिखर में,
गिरते आँखों देखा।
बुरे काम का बुरा नतीजा,
घर जोगी ने नापा।।
बनी हवेली रही काँपती,
वक्त में काम न आई ।
साँसों ने हिचकोले खाई
यम ने मारा लापा।
यम ने उसको चापा।
जिन पर था विश्वास हमारा,
घात लगा धकियाया।
गैरों ने ही दिया सहारा,
अखबारों ने छापा।
देर सही अंधेर नहीं है,
सूरज तो निकलेगा।
रामचंद्र होंगे अवतारी
रावण ने भी भाँपा।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’