दिखती कलियुग मार.....
दिखती कलियुग मार, जींमते दोने में।
पड़े वृद्ध माँ-बाप, तिरस्कृत कोने में।।
सपन-सुनहरे देख, खपा दी उमर सभी,
निकल न पाया सार, व्यर्थ अब रोने में।
त्रेतायुग की याद, दिलों में है बसती ,
श्रवण हुए गुमराह, लगे सब सोने में ।
आँखें खोलो जगो, समय की बलिहारी,
कृपा करो भगवान, पाप को धोने में ।
संस्कृति है बदनाम, कमाएँ पुण्य सभी,
अब मत करो प्रलाप, स्वजन के होने में।
श्रम से होती सुखद, निरोगी मन-काया,
फसल मिलेगी वही, बीज के बोने में।
सेवा-मेवा-श्रेष्ठ, समझना हम सबको,
पड़ती चाबुक मार, समय को खोने में।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’