दोस्त देखकर आँखें चुराने लगे हैं.....
दोस्त देखकर आँखें चुराने लगे हैं ।
मित्रता की तराजू झुकाने लगे हैं।।
खूब सौगंध खाई निभाने की मगर,
सीढ़ियांँ जब चढ़ीं तो गिराने लगे हैं।
कभी खाए छिपाकर सुदामा ने चने,
गरीबी के चुभे-दंश रुलाने लगे हैं।
कन्हैया सा दोस्त,अब मिलेगा कहाँ,
प्रतीकों में बनकर लुभाने लगे हैं।
भूलने की यह आदत सदियों से रही ,
आज फिर नेक सपने सुहाने लगे हैं ।
स्वार्थ की बेड़ियों में बँथे हैं सभी,
खोटे-सिक्कों को सब भुनाने लगे हैं।
तस्वीरें बदली कुछ इस तरह देखिए,
चासनी लगा बातें,सुनाने लगे हैं ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’