होते हैं कुछ, मन के काले.....
होते हैं कुछ, मन के काले।
अंदर हैं विषधर को पाले।।
गिरगिट जैसा रंग बदलते,
भ्रष्ट आचरण बड़े निराले।
धीरज ने धीरज को खोया,
धन दौलत सब किया हवाले।
पहन मुखौटा जीवन जीते,
उनके मुख में लटके ताले।
समृद्धि मार्ग बना अति सुंदर,
कुछ के पग में पड़ते छाले।
सरिताओं से मिलता अमृत,
पर हम मिला रहे विष-नाले।
जन्म भूमि छूटी है जबसे,
पीड़ा के चुभते हैं भाले।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’