जब से प्रिय के, अधर मुस्कराने लगे.....
जब से प्रिय के, अधर मुस्कराने लगे।
मेरे बढ़ते कदम डगमगाने लगे।।
शब्दों का मैं पुजारी रहा हूँ सदा।
गीत में ढल के, मुझको रिझाने लगे ।।
आँखों से आँख, मिल ही न पाई मगर
नेह पुष्पों की, सैया बिछाने लगे।।
मैं अकेले चल, रहा था अपनी डगर।
हम सफर होकर, पथ को सजाने लगे।।
तुमने कह क्या दिया था, मुझे देखकर।
याद में मेरे आकर सताने लगे।।
प्रेम के ग्रंथ को, मैंने पढ़ा न कभी।
मेरे दीपक-हृदय, जगमगाने लगे।।
ईश्क का सिलसिला जब पुराना हुआ।
उँगलियों में वे मुझको नचाने लगे।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’