समझाने पर कहाँ समझता.....
समझाने पर कहाँ समझता।
छद्म वेश धर रहा सुलगता।
अहंकार को पाले मन में,
लहू बहा कर ही वह हँसता।
नव प्रकाश से नफरत करता,
आँख बंद कर सपने बुनता।
बेड़ी में ही रहता जकड़ा,
उसकी बड़ी यही दुर्बलता।
भाते कभी न नेह के सपने
हँसी खुशी निश्छल निर्मलता।
मिली पराजय सदा उसे ही,
बेशर्मी में जिंदा रहता।।
आतंकों का गढ़ कहलाता,
तहस-नहस करता मानवता।
बनी आँख की बडी़ किरकिरी,
उपचारों से नहीं सफलता।
अरिमर्दन की है अभिलाषा,
भारत की अब यही विवशता।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’