आँखों के तारे थे परिजन.....
आँखों के तारे थे परिजन , क्यों हो गए पराए।
स्वारथ के चूल्हे बटते ही, बर्तन हैं टकराए ।।
दुखियारी माता रोती है, मौन पड़ी परछी में,
बँटवारे में वह भी बँट गइ, बाप गए धकियाए।।
महिलाओं ने कमर कसी है,उँगली खड़ी दिखाई,
भेदभाव का लांछन देकर, लड़के तक गुर्राए।
परिपाटी जबसे यह आई, बढ़ती गईं दरारें,
दुहराएगी नव पीढ़ी ही, कौन उन्हें समझाए।
जीवन को कर दिया समर्पित, तुरपाई कर-कर के
बदले में हम क्या दे पाते, जाने पर पछताए।
कंटकपथ पर क्यों चलना है, जिस पथ में शूल गड़ें,
राह बुहारें करें सफाई, फिर हम क्यों भरमाए।
चलो सहेजें परिवारों को, स्वर्णिम इसे बनाएँ,
ऐसी संस्कृति कहाँ मिलेगी,कोई तो बतलाए।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’